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जब 900 सेकंड के लिए गंगा हो जातीं हैं यमुना : नाग नथैया

साल में एक बार 900 सेकंड के लिए गंगा यमुना हो जाती हैं और काशी के तुलसी घाट का किनारा गोकुल बन जाता है। जब हर-हर महादेव से शुरू हुआ जयकारा वृंदावन बिहारी लाल पर रुकता है। तब काशी त्रेता और द्वापर की सीमाओं से परे हो जाती है।

जगह है तुलसी घाट और मौका कृष्णलीला की नाग नथैया के मंचन का। तुलसी घाट की सीधी खड़ी सीढ़ियां गवाह हैं, उस वक्त की जब शिव की नगरी में कृष्ण की लीला देखने लाखों की भीड़ जुटती है। अस्सी के एक छोर से चेतसिंह किले के झरोखे तक से कई जोड़ी आंखें सिर्फ दुनिया में मशहूर इस लीला को देखने जुटी हैं। इनमें खांटी बनारसी और लीला के नेमी ही नहीं, फॉरेन टूरिस्ट भी शामिल हैं। घाटों की सीढ़ियों और सामने लगी नावों पर पर सवा लाख दर्शकों का कब्जा है। रीवा घाट और तुलसी घाट के बीच बने हौदे से माइक लिए अनाउंसमेंट हो रहा है। शिव के डमरू से निकले स्वर किसी सैनिक सी कदमताल कर रहे हैं। तुलसी की चौपाइयां और कृष्ण के संवाद यूं बुने जा रहे हैं कि गंगा भी अपने छोर पर बने घाटों और उनकी हदों पर इठला रही है।

शाम 4 बजे जैसे ही कृष्ण की टोली दनदनाते हुए तुलसी घाट की सीढ़ियां उतरती हैं। और जैसे ही टोडरमल की दान की हुई हवेली की बुर्ज पर कंस आ बैठता है। और जैसे ही संकटमोचन मंदिर के महंत वहां लगे आसन पर विराजते हैं। गंगा की लहरों पर कुछ वक्त के लिए नाव और बजड़ों का ट्रैफिक तुलसी घाट की सीध में थम जाता है।

बाकायदा कृष्ण स्वरूप की आरती उतारी जाती है। बैकग्राउंड में कृष्णलीला की चौपाइयां बजने लगती हैं… तीन लोक को बोझ ले भारी, भए मुरारी, फण फण पर नाचत फिरे, बाजे पग पट तारी। यानी तीन लोक के बोझ को लेकर मुरारी श्रीकृष्ण कालिया नाग के फन पर नाच रहे हैं और उनके पैर हर पल अपनी धमक से उसको तार रहे हैं।

लीला यहीं खत्म नहीं होती। कृष्ण गंगा तीरे आते हैं। वहां गोताखोर गर्दन तक पानी में डूबे खड़े हैं। दुनिया की रक्षा करने वाले की सुरक्षा के लिए शायद। 84 साल के बैजनाथ मल्लाह पिछले 75 वर्षों से इस लीला का हिस्सा हैं। ये सभी गोताखोर उन्हीं के मोहल्ले के हैं। कृष्ण के कदंब से कूदने से लेकर लौटने तक के डायरेक्टर हैं वो। कृष्ण कदंब से कूदे नहीं की पूरे तट पर होहल्ला हो जाता है। यमुना बन बैठी गंगा से जैसी ही कृष्ण बाहर आते हैं, कालिया के फन पर सवार होते हैं तो उन्हें नया नाम नाग नथैया वृंदावन लाल मिल जाता है।

एक ओर से रस्सी खींची जाती है तो दूसरी ओर दस फीट गहरे पानी में गोताखोर नाग और कृष्ण के साथ पूरे घेरे का चक्कर लगाते हैं। और फिर दुर्गा मंदिर के महंत कृष्ण को कांधे पर बैठाकर लौटा ले जाते हैं। शैव, शाक्त और वैष्णव धाराएं गंगा के तट पर एकदूजे में मिल जाती हैं। ये बस एक प्रसंग का आखिर है। लीला यहीं खत्म नहीं होती। अगले 11 दिन हर शाम यहां एक लीला होगी। आखिरी काशी सात वार नौ त्योहारों के लिए यूं ही तो मशहूर नहीं।

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