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पितृपक्ष और पितृपक्ष का महत्व, श्राद्ध की परंपरा

श्राद्ध का पहला उपदेश
महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार सबसे पहले श्राद्ध का उपदेश अत्रि मुनि ने दिया था। इसके बाद सबसे पहले श्राद्ध महर्षि निमि ने किया था। बाद में धीरे-धीरे कई अन्य महर्षि भी श्राद्ध कर्म करने लगे और पितरों को अन्न का भोग लगाने लगे। जैसे-जैसे श्राद्ध की परंपरा बढ़ती गई देवता और पितर धीरे-धीरे पूर्ण रूप से तृप्त होते गए। जिसके बाद उन्हें भोजन को पचाने की समस्या सामने आने लगी।

श्राद्ध में रोग का शिकार थे पितर और देवता
लगातार श्राद्ध का भोजन करने से पितरों को भोजन का न पचना एक रोग का रूप धारण कर लिया। तब पितर और देवता सभी मिलकर ब्रह्राजी के पास उपाय मांगने गए। तब ब्रह्राजी ने देवताओं और पितरों की बातें सुनकर कहा कि आपकी समस्या का समाधान अग्निदेव करेंगे।

श्राद्ध में अग्नि का महत्व
देवताओं और पितरों की समस्या को सुनकर अग्नि देव ने कहा अब से श्राद्ध में हम सभी एक साथ भोजन ग्रहण करेंगे। मेरे साथ भोजन करने पर भोजन के पचाने की समस्या दूर हो जाएगी। इसके बाद से ही सबसे पहले श्राद्ध का भोजन अग्नि को, फिर बाद में पितरों का दिया जाता है।

सबसे पहले पिता को तर्पण
ग्रंथों के अनुसार, श्राद्ध कर्म में अग्नि देव के उपस्थित होने पर राक्षस वहां से दूर भाग जाते हैं। हवन करने के बाद सबसे पहले निमित्त पिंडदान करना चाहिए। सबसे पहले पिता को, उसके बाद दादा को फिर परदादा को तर्पण करना चाहिए। अमावस्या की तिथि पर श्राद्ध जरूर करना चाहिए।

श्राद्ध विधि
पितृपक्ष में किए जाने वाले श्राद्ध में तिल और कुश की महत्ता इस मंत्र के द्वारा बताई गई है। जिसमें भगवान विष्णु कहते हैं कि तिल मेरे पसीने से और कुश मेरे शरीर के रोम से उत्पन्न हुए हैं। कुश का मूल ब्रह्मा, मध्य विष्णु और अग्रभाग शिव का जानना चाहिए। ये देव कुश में प्रतिष्ठित माने गए हैं। ब्राह्मण, मंत्र, कुश, अग्नि और तुलसी ये कभी बासी नहीं होते, इनका पूजा में बार-बार प्रयोग किया जा सकता है।

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